Tuesday 13 January 2015

( २९ ) - गौ - १- चिकित्सा- बुखार ।

( २९ ) - गौ - १- चिकित्सा- बुखार ।

१ - बुखार आदि
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कारण व लक्षण - गाय - भैंस व अन्य पशुओ को क़ब्ज़ व अफारा -- ऐसे में पशु का पेट फूल जाता है और पेट पर हाथ मारने से पेट से ढप -ढप की आवाज़ आती है ,पशु घास खाना छोड़ देता है । जूगाली भी बन्द कर देता है ।

१ औषधि - हरा कसीस ५० ग्राम , साल्ट ( नमक ) ५० ग्राम , हीरा हींग १० ग्राम , बड़ी पीपल १५ ग्राम , सभी दवाईयों को कूटकर पाँच खुराक बना लें । २५० ग्राम गाय का दूध लेकर उसमें १०० ग्राम पानी को मिलाकर उबाल लें , फिर ठंडा करके तेज मीठा कर लें , तब एक खुराक उपरोक्त दवाईयाँ मिला कर दें ।

# - अगर ज़रूरत पड़े तो ७-८ घन्टे बाद दूसरी खुराक दें, आवश्यक होतों पाँच खुराक या ९ खुराक पाँच-पाँच घन्टे बाद देवें , ९ से ज़्यादा खुराक न दें दवा नुक़सान करेगी । तथा क़ब्ज़ या अफारा टूटने पर दवाई न दें ।

२ -औषधि - दर्द व अफारा -- इस बिमारी में गाय -भैंस व अन्य पशु जब बिमार होता है तो वह पिछले पैर को ज़मीन में बार - बार मारती रहती है । ऐसे मे कालानमक १० ग्राम , अजवायन ५ ग्राम , दूधिया हींग ५ ग्राम , खाने का सोडा १० ग्राम,सभी दवाओं को कूटपीसकर पशु के मूंह को खोलकर उसकी जीभ पर रगड़ने से ठीक होता है।

#~ आधा लीटर सरसों का तैल पिलाने से भी अफारा टूट जाता है ।

३ - गाय- भैंस व अन्य पशु का बुखार न टूटने पर -- ऐसे मे खूबकला २०० ग्राम , अजवायन २०० ग्राम , गिलोय २०० ग्राम , कालीमिर्च २० दानें , बड़ी इलायची ५० दाने , कालानमक ५० ग्राम , सभी दवाईयों को कूटकर ढाई किलो पानी में पकाकर जब १ किलो पानी शेष रहने पर छानकर २००-२००ग्राम की पाँच खुराक बना लें । और सुबह -सायं एक-एक खुराक देवें , केवल पाँच खुराक ही देवें ।

२ - बुखार
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कारण व लक्षण - गाय - भैंस बूखार -- सर्दी के लक्ष्ण - गाय के सींग ठंडे होगे, और मूंह के अग्रभाग पर पसीने के बजायें मूंह पर सूखापन होगा और कान ठंडे होंगे और चारा कम खायेंगीं तो मानिए गाय को सर्दी लगी है ।
१ - औषधि - मसूर की लाल दाल ५० ग्राम , लहसुन १५ ग्राम , कालीमिर्च ५ ग्राम व सोंठ ५ ग्राम , सरसों का तैल ५० ग्राम , सभी चीज़ें लेकर दाल को बनाकर गुनगुनी ही नाल से पिलादें।

# - ध्यान रहे पशु गर्भावस्था में होतों यह दवा न दे । नहीं तो गर्भ गिर जायेगा ।

२ - गाय-भैंस का बूखार - बूखार यदि पुराना भी होतों भी ठीक होगा । मदार ( आक़ ) के ४ छोटे पत्ते लेकर एक पाॅव गाय का घी ( मजबूरी में भैंस का घी ) लेकर कढ़ाई में घी पकायें और उसमें पत्ते बारीक काटकर डाले और पत्ते भस्म होने तक पकायें फिर ठंडा करके , पशु को रोटी में रखकर एक खुराक देदें । बूखार एक खुराक में ही उतरेगा ।

३ - बुखार -
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कारण व लक्षण - साधारण मौसम में परिवर्तन होने के कारण उसका प्रभाव पशु पर बहुत बुरा होता है और पशु को बुखार आ जाता है । खाने - पीने में गड़बड़ी होने से हर क़ब्ज़ होने से भी बुखार आ जाता है । इसके अतिरिक्त अन्य रोगों के कारण भी पशु को बुखार आजाता है । रोगी पशु पशु सुस्त रहता है । पशु का शरीर गरम रहता हैं और साँस की गति तेज़ हो जाती है । वह खाना व जूगाली करना बन्द कर देता है तथा शरीर में रोयें खड़े हो जाते हैं । और नाड़ी की गति बढ़ जाती है।

१ - औषधि - ऐसे पशुओं को बन्द कमरे में रखना चाहिए , पीने को गरम पानी को ठन्डा करके पिलाना चाहिए तथा रोगी पशु को हल्का जुलाब ( दस्तावर वस्तु ) देना चाहिए ।

२ - औषधि -सादा नमक २४ ग्राम , चिरायता २४ ग्राम , नाय ( कारलो फारपस एपी जिबस ) १२ ग्राम , कटुकी १२ ग्राम , पानी १४४० ग्राम , सबको बारीक कूटपीसकर पानी में उबाल लेंना चाहिए और आधा रहने पर गुनगुना बिनाछाने ही रोगी पशु को सुबह - सायं आराम आने तक पिलाना चाहिए ।

४ - शोथ ज्वर( बुखार ) या एक टँगिया
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कारण व लक्षण - जगंल में और पहाड़ी क्षेत्र में पहली बार वर्षा होती है तो उसका गन्दला पानी , कचरा आदि कई जगहों में इकट्ठा हो जाता है । इस पानी को पीने से यह रोग हो जाता है । मुख्यत: कम उम्र के नौजवान पशुओ तथा छोटे बच्चों को यह रोग अधिक होता है । इस रोग में पशु सुस्त हो जाता है । उसका बुखार बढ़ जाता है। चरते समय वह झुंड के पीछे लँगड़ाता हुआ धीरे - धीरे चलता है चरते समय झुंड से एक तरफ़ अलग ,खड़ा रहता है । यह रोग पशु के फरे व बग़ल में होता है । वहाँ एक विशेष प्रकार की सूजन हो जाती है जिसको दबाने पर चर्र - चर्र की आवाज़ होती है । किसी - किसी पशु को यह रोग अन्दरूनी भाग में भी होता है । उसकी साँस की गति बढ़ जाती है । वह दाँत पीसता है । ऐसे समय ठीक से इलाज न होने से पशु मर जाते है।

१ - औषधि - काँसे के फूल ६० ग्राम , इन्द्रायण फल ३० ग्राम , पानी २४० ग्राम , काँसे के फुलों को पीसकर पानी में मिलाकर रोगी पशु को बिना छाने ही दिन में तीन बार पिलाना चाहिए ।

२ - औषधि - तेन्दूफल ६० ग्राम , इन्द्रायण फल ३० ग्राम , सत्यनाशी की जड़ ६० ग्राम , अपामार्ग ( चिरचिटा ) जड़ ६० ग्राम , हल्दी ६० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ १५ लीटर सबको बारीक पीसकर , छाछ में मिलाकर रोगी पशु को ४-४ घन्टे बाद इसी मात्रा में पिलाना चाहिए ।

३ - औषधि - गोमूत्र १ लीटर , नीला थोथा ३० ग्राम , नीला थोथा को बारीक पीसकर , मूत्र में मिलाकर पिचकारी से नीचे छेद कर दें । दिन में दो बार , सुबह - सायं करने से आराम होगा । ख़ून हाथ में न लगे बात की सावधानी रखें ।

५ - हिया बिलाय- बुखार
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कारण व लक्षण - पशु को अधिक गरम पदार्थ खिलाने पर , हृदय में अचानक चोट लगने पर , पशु से अधिक श्रम लेने के बाद ठन्डा पानी पी लेने पर ,और कभी - कभी ऋतु परिवर्तन से भी यह रोग हो जाता है । यह रोग तेज़ धूप से भी हो जाता है । इस रोग में बुखार रहता है । उसके श्वास में की गति बढ़ जाती है । श्वास में बुरी गन्ध आती है । रोगी झटकेदार साँस लेता है । उसे गोबर के साथ कभी - कभी मामूली ख़ून भी आता है । अधिक गर्मी में रोगी पानी में जाकर खड़ा रहता हैं । वह जहाँ पेशाब करता है , वही बैठा रहता है । जहाँ पानी पीता है वही खड़ा रहता है । यह रोग पशु के फेफड़ों में पैदा होता है और वे सड़ने लगते है । रोगी पशु दिन - दिन कमज़ोर होता है । वह खाना - पीना व जूगाली करना बन्द कर देता है । वह दिन - रात बैठता नहीं है और पशु की श्वास ज़ोर - ज़ोर से चलती रहती है ।

१ - औषधि - बत्तख का अण्डा २ नग , गाय का दूध ९६० ग्राम , अण्डों को फोड़कर दूध में डालकर छिलके फेंक दें । और दूध को ख़ूब फेंटना चाहिए । इस खुराक को रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक पिलाना चाहिए ।

२ -औषधि - मुर्ग़ी के अण्डे २ , गाय का दूध १ लीटर , अण्डों को फोड़कर दूध में मिलाकर छिलके फैंक दें और दूध को ख़ूब फेंटना चाहिए । अगर कुछ आराम मालूम हो तो फिर एक अण्डा ही आधा लीटर दूध में मिलाकर दोनों समय पिलाना चाहिए ।

३ - टोटका,औषधि - ज्वार का आटा ४८० ग्राम , पानी ५ लीटर दोनों को मिलाकर पकाना चाहिए , ठन्डा होने पर रोगी पशु को दोनों समय आराम होने तक खिलाना चाहिए । दिन में पशु को हवादार जगह तथा छाया में बाँधना चाहिए । और पशु के नीचे मुलायम घास या रेत बिछानी चाहिए तथा रोगी पशु के पास पीने का पानी हमेशा रहना चाहिए क्योंकि वह धीरे - धीरे पानी पीता रहता है ।

४ - औषधि - गाय के दूध से बनी छाछ १५०० ग्राम , कालीमिर्च ३० ग्राम , मिर्च को बारीक पीसकर छाछ में मिलाये तथा कुल्हाड़ी गरम करके छाछ में डाल दें और ऊपर से ढक दें । तुरन्त आराम आयेगा । एक माह तक पिलाना चाहिए ।

५ - औषधि - अलसी के बीज ९६० ग्राम , पानी २ लीटर , पानी में बीजों को आधा घन्टा पकाकर दोनों समय , इस मात्रा को आराम आने तक खिलाना चाहिए ।

६ - औषधि - गाय के दूध से बनी दही ९६० ग्राम , प्याज़ का रस १२०० ग्राम , दोनों मिलाकर , आराम होने तक पिलायें ।

७ - औषधि - गोमूत्र ९६० ग्राम , को लेकर सुबह - सायं आराम होने तक पिलाना चाहिए ।
२ - गा़़़य - भैंस डिलिवरी के बाद अपनी जेर को खा जाती है -- तो एेसी स्थिति में किसान को तुरन्त इस योग का उपयोग करें। अरण्डी का तैल २००ग्राम , अलसी का तैल २०० ग्राम , नौसादर १०० ग्राम , शुद्ध हींग २० ग्राम , कालीमिर्च २० ग्राम , अदरक १०० ग्राम , पुराना गुड़ ५०० ग्राम , इन सभी को कूटकर चार खुराक बना लीजिए और एक खुराक को आधा किलो पानी में पकाकर ठंडा कर लें जब पीने लायक हो जायें तब नाल से गाय-भैंस को सुबह -सायं पीला दें । दो दिन देने से अवश्य ठीक होगा ।



६ - सन्निपात बुखार
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कारण व लक्षण - रोगी पशु को बुखार में ठन्डी लग हवा लग जाने से निमोनिया और फिर डबल निमोनिया हो जाता है ,उसके बाद उसे सन्निपात हो जाता है । रोगी पशु के कान पूरे ठन्डे हो जाते है उसके होंठों के ऊपर की पानी की बून्दे सूख जाती है और आँखें भीतर धँस जाती है , यह रोग छोटे बछड़ों को अधिक होता है तथा पशु चिल्लाता है और इधर - उधर भड़कता है व चमकता है । पशु की आँखों से कम तथा धुधँला दिखाई देता है । रास्ता व मकान आदि दिखाईं नहीं देते व अन्धा सा हो जाता है । थोड़ी - थोड़ी देर बाद उसे ऐसे ही दौरे आते है रहते है और वह कमज़ोर हो जाता हैं ।

१ - औषधि - चन्द्रशूर ३० ग्राम , घुड़बच ३६ ग्राम , इन्द्रायण फल ३० ग्राम , सेंधानमक ३० ग्राम , बंशलोचन ४ रत्ती , पानी ४८० ग्राम , सभी को कूटपीसकर पानी में मिलाकर गरम कर लें और गुनगुना होने पर बंशलोचन मिलाकर बिना छाने रोगी पशु को दोनों समय इस खुराक को बनाकर आराम होने तक पिलायें ।

२ - औषधि - लहसुन ३० ग्राम , अजवायन ३० ग्राम , सोंठ ३० ग्राम , इन्द्रायण फल २४ ग्राम , काला ज़ीरा ३० ग्राम , पानी ४८० ग्राम , सबको बारीक कूट- पीसकर पानी में मिलाकर , काढ़ा बनायें जब आधा रह जाये तो बिना छाने ही , इस खुराक को रोगी पशु को आराम आने तक दोनों समय पिलायें।
पशु को जब भी पानी दें तो पानी को गरम करके ठन्डा होने पर पिलायें, पशु बन्द कमरे में रखे , तथा पशु के नीचे गरम बिछावन रहना चाहिए ।


७ - विष - ज्वर ( बुखार ) - बावला रोग ( Anthrax )
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कारण व लक्षण - यह पशुओं का एक भंयकर संक्रामक रोग हैं , जो रोगी पशु से अन्य स्वस्थ पशुओं में फैल जाता हैं । यह रोग एक विशेष प्रकार के अति सुक्ष्म रोगाणुओं के रक्त में प्रवेश कर जाने से उत्पन्न होता हैं । इस रोग के कीटाणु भी शीघ्र ही ( १२-४८ घन्टे के अन्दर ही ) लोखों में बढ़कर रोग के लक्ष्ण उत्पन्न कर देते हैं । छूत रोग होने के कारण हवा, पानी, झूठे चारे- दाने , मल - मूत्र तथा स्पर्श आदि के द्वारा इसके कीटाणु अन्य स्वस्थ पशुओं में बहुत तीव्रता के साथ फैलकर उन्हें भी अपनी चपेट में लें लेते हैं । यदि कोई पशु अचानक ही मर जायें तो उसके मूंह - नाक - गूद्दा से काला ख़ून निकलता दिखाई देता हैं तो इस बात का पक्का सकेंत हैं कि वह पशु ज़हरी ज्वर या विष ज्वर से मरा हैं उसके रक्त में रोग का विष फैल जाता हैं जिसके कारण रक्त का रंग नीला व काला पड़ जाता हैं । साथ ही पशु की खाल का रंग भी नीलापन लिए काला पड़ जाता हैं और पशु का मृत शरीर शीघ्र ही सड़ने लगता हैं ऐसे पशु के शव को तथा उसके मस- मूत्र तथा थूक- लार व झूठा चारा आदि को जला देना चाहिए या गहरा गड्ढा खोदकर ज़मीन मे गाढँ देना चाहिए । पशु को जिस स्थान पर बाँध रखा था वहाँ पर सूखा चूना पावडर छिड़क देना चाहिए जिससे वहाँ रोगमुक्त हो जाये ।

जब भी कोई पशु इस रोग से ग्रस्त होता हैं तो प्रारम्भ में उसे १०६-१०७ डिग्री फारेनहाइट तक तेज़ बुखार हो जाता हैं तथा पशु की नाड़ी मन्द पड़ जाती हैं । पशु की चमड़ी का रंग भी बदलकर नीला या मटमैला - सा हो जाता हैं । इस रोग से पीड़ित पशु बड़ी बेचैनी के साथ चक्कर काटता रहता हैं । पशु पीड़ा से चिल्लाता रहता हैं उसकी आँखों का तेज व चमक नष्ट हो जाती हैं तथा नाक से रक्तमिश्रित पानी और मवाद - सा बहने लगता हैं तथा कभी- कभी काले रंग का ख़ून भी निकलता हैं । साथ ही रोगी पशु के सिर , गर्दन , छाती , पेट के पीछे और पैर आदि में सूजन हो जाती हैं । कुछ ही दिनों में पशु अत्यधिक जीर्ण होकर लड़खड़ाने लगता हैं और इसी प्रकार कष्टों को सहता हुआ , छटपटाता हुआ अन्त में मर जाता हैं ।

कभी- कभी इस रोग में पशु को काले ख़ून के दस्त से सने दस्त भी आते हैं तथा मूत्र भी गहरे रंग का आता हैं । कभी- कभी पशु को बुखार की तीव्रता के कारण बेहोश हो जाता हैं और १-२ दिन तक बेहोश पड़ा रहता हैं ।

१ - औषधि - आधा किलो अलसी का तेल में २५ ग्राम , तारपीन का तेल मिलाकर पशु को पिलाना लाभकारी होता हैं ।

२ - औषधि - आधा किलो गाय का घी , फिनाइल २० ग्राम , घी को गुनगुना करके उसमें फिनाइल मिलाकर पशु को नाल द्वारा पिलाने लाभ होता हैं इस रोग के कीटाणु मर जाते हैं एंव पशु में रोग प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न होती हैं ।


८ - लगँडा बुखार ( Black Quarter )
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इस रोग को भी हमारे देश में अलग - अलग नामों से जाना जाता हैं जैसें- अकड़ा रोग , लगंडी रोग , चेवड़ा , चिरचिरा रोग , गोली रोग , फलसूजा रोग आदि- आदि नामों से जाना जाता हैं ।

कारण व लक्षण - यह बीमारी ख़ून में कीटाणु द्वारा विकार उत्पन्न हो जाने से होती हैं । इस रोग के कीटाणु एक प्रकार के होते हैं । वह पानी या घाव द्वारा शरीर में प्रवेश कर रोग उत्पन्न कर देता हैं ? अक्सर यह रोग जलवायु परिवर्तन पर होता हैं । यदि किसी पशु को एक जलवायु से दूसरी जलवायु में लाया जाता हैं तो वह इस रोग का शिकार हो जाता हैं । साथ ही यह रोग बड़ी उम्र के पशुओं की अपेक्षा छोटी उम्र में पशुओं में अधिक होता हैं । यह रोग भी पशुओं के भंयकर रोगों में से एक हैं । क्योंकि इस रोग का आक्रमण होने पर अच्छा - भला पशु देखते ही देखते अकड़ने लगता हैं और उसकी २४ घन्टे के अन्दर ही मृत्यु हो जाती हैं । अत: किसी पशु में जैसे ही इस रोग के लक्षण दृष्टिगोचर हों , उसे तुरन्त ही निकटतम राजकीय पशु चिकित्सक को दिखाकर समुचित चिकित्सा का प्रबन्ध करना चाहिए । इस रोग की पहचान के लिए रोगग्रस्त पशु में निम्नांकित लक्षण देखें जा सकते हैं --

सबसे पहले पशु सुस्त पड़ता हैं इसके बाद पशु के अलग- अलग अंगों में अकड़न उत्पन्न होने लगती हैं । धीरे- धीरे उसका शरीर बूरी तरह अकड़ जाता है की वह चलने- फिरने में असमर्थ हो जाता हैं । यदि उसको चलाने की कोशिश की जाय तो वह धीरे- धीरे बड़ी मुश्किल से चल पाता हैं ऐसा प्रतित होता हैं कि मानो उसे लकवा मार गया हो । ऐसा रोगग्रस्त पशु अन्य पशुओं से दूर जाकर खड़ा होता हैं । कुछ घन्टे पश्चात् कष्ट सहते- सहते पशु गिर पड़ता हैं । उसके सिर व कान लटक जाते हैं । उसके बाद कमर , जाँघों और गले की लटकती खाल आदि पर सूजन आ जाती हैं । इस सूजन को दबाने पर कर्र- कर्र की आवाज़ होती हैं । फिर तेज़ बुखार चढ़ता हैं और पशु की साँस फुलने लगती हैं । वह दाँत पीसता हैं और खाना - पीना बन्द कर देता हैं और इसी दशा में पड़ें - पड़ें अक्सर पशु २४ घन्टे के अन्दर ही मर जाता हैं ।

लक्षण - इसरोग की सूजन को दबाते समय कर्र- कर्र , मर्र- मर्र , चर्र- चर्र , बज-बज , की आवाज़ मालूम होती हैं । मेंढक के चमड़े को दबाने जैसी आवाज़ मालूम होती हैं । इसकी सूजन पिछली जाँघ व पीठ पर होती हैं । पशु को तेज बुखार हो जाता है और गोबर बन्द हो जाता हैंं , पेट फूल जाता हैं । एक विशेष ध्यान देने देने योग्य बात यह हैं कि यह रोग अलग- अलग पशुओं में अलग- अलग प्रकार के लक्षण दिखाई देते हैं और पशु के शरीर के अलग- अलग अंगों में प्रभाव के लक्षण दिखाई देते हैं । यदि यह रोग फेफड़ों व छाती में दिखाई देता हैं तो उसे साँस लेने में घोर कष्ट होता हैं और यदि रोग सिर में होता हैं तो पशु बेहोश हो जाता हैं । यदि रोग पशु के पेट के भीतर तिल्ली , जिगर आदि में हैं तो पेट दर्द जैसे लक्षण प्रकट होते हैं और यदि रोग पैरों में होता हैं तो वे बेकार हो जाते हैं और पशु लड़खड़ाकर गिरने लगता हैं । आमतौर पर पिछले पुटठों में और कभी- कभी अलग- अलग पुट्ठे में सूजन हो जाती हैं । गर्दन या पीठ में भी सूजन हो सकती हैं । रोगी पशु की मृत्यु से पहले से कुछ पहले यह सूजन अपने आप नष्ट हो जाती हैं । उसमें दर्द भी नहीं रहता हैं । चूँकि उससे गैस भी होती हैं , इसलिए दबाने से सलवटें - सी पड़ जाती हैं । तेज़ बुखार भी होता हैं और पशु ४८ घन्टों में अवश्य ही मर जाता हैं । यह एक असाध्य रोग हैं । इसके ९९% रोगी पशु मर जीते हैं ।

१ - औषधि - यदि तुरन्त एलौपैथिक - वैक्सीन , पेनिसिलीन अथवा लँगडीरोधी सीरम के टीके व इन्जैकशन आदि अप्राप्य हो तो तुरन्त ही रोगी पशु के सूजन वाले भाग पर चीरा लगाकर उसमें नीम का तेल या कपूरादि तेल भर दें । चीरा लगाने वाले चाक़ू को लाल गरम करके किटाणुरहित कर लें और ठन्डा कर लें । तब उस चाक़ू से चीरा लगायें

२ -औषधि - कपूरादि तेल - कपूर १ तौला,तारपीनका तेल १ छटांक , और सरसों का तेल २५० ग्राम , इन सब को मिलाकर कपूर को तेलों के मिश्रण में भलीप्रकार घोल लें । यह तेल रोग के कीटाणुओं कों भी नष्ट कर देता हैं और "छिदना" के घाव पर मक्खियों को नहीं बैठने देता हैं । पशु चिकित्सा में जहाँ कहीं भी वर्णन आता है तो इस विधी से ही बनाना चाहिए ।

# - औषधि - पशु के जिस अंग में सूजन आ रही हो उस अंग को लोहे की लाल सलाखों से वहाँ दाग देना चाहिए , इससे भी कीटाणु रहित हो जाता हैं ।

# - इस रोग में छेदने क्रिया अतिगुणकारी होती हैं - पशु के गले की लटकती हूई खाल जिसे हेलुआ या गलकम्बल के नाम से जाना जाता हैं । इसमें तेज़ चाक़ू या छुरी को लाल करके ठन्डा करकेगरम पानी में खौलाकर कीटाणुरहित कर चाक़ू से कोई एक अगुँल की चौड़ाई का छेद खाल के आर- पार कर दें । फिर ऐसा ही एक और छेद पहले छेद से ४ अगुँल की दूरी पर कर दें । और अब इन दोनों छेदों में से मोटा धागा । या घोड़े की पूँछ के बालों से बना डोरा सूऐ में डालकर सूऐ द्वारा दोनों छेदों में डालकर इतनी ढील छोड़कर की खाल न दबें - टाईट हो गाँठें लगा दें और कपूरादि तेल भर दें व बाहर भी चुपड़ दें । ताकि मक्खी न बैठें । यह यह कीटाणुनाशक तेल दिन में कई बार चुपड़ते रहे । यदि घाव का अंगूर ऊँचा हो गया हो तो उस पर पीसा हुआ नीला- थोथा बुरक दें ।

यदि के शरीर में सूजन अधिक बढ़ जायें , फेफड़ों में ख़ून सा भरा प्रतित हो तथा पशु को साँस लेने में कठिनाई प्रतित होने लगे तो तो उसके बचने की आशा बहुत ही कम रह जाती हैं । क्योंकि उस अवस्था में पहुँचने पर कोई दवा प्रभावकारी नहीं होती हैं ।

अत: उस अवस्था से पूर्व ही इन उपायों से जान बच सकती हैं --

३ - औषधि, जूलाब- अलसी का तेल २५० ग्राम , पिसा हुआ गन्धक १२५ ग्राम , सोंठ पावडर १३ ग्राम , सबको आधा लीटर गरम पानी में मिलाकर पशु को पिलायें और जबतक पशु को पतले दस्त न लगने लगे तबतक तीसरे घन्टे बाद इस योग का सेवन निरन्तर चालू रखें । यह एक प्रकार का जूलाब है जोकि गोबर द्वारा पशु के शरीर के अन्दर से सारा रोग( विष ) बाहर निकाल देता हैं और इस प्रकार पशु के प्राण बच जायेंगे ।
बचाव पक्ष -
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यह रोग अन्य पशुओं मे न फैले क्योंकि यह एक छूतरोग भी हैं इस हेतु दो सरल उपाय है वह करने चाहिए --
१ - औषधि - नमक १० तौला , गन्धक साढ़े सात तौला , सोंठपावडर सवा तौला - इन सब को नमक व गन्धक को पीसकर सोंठ में मिलाकर पशु को चटा दें । इस प्रयोग से उन्हें छूत नहीं लगेगी , ख़तरा कम हो जायेगा ।

२ - औषधि - पानी में थोड़ा - सा कलमीशोरा नमक घोलकर सब स्वस्थ पशुओं को पिलाते रहें ताकि यदि कभी रोग के कीटाणु उनके शरीर में पहुँच जाते हैं तो तत्काल नष्ट हो जाये और पशु स्वस्थ रहे । इस पर्कार आप अपने पशुओं की सुरक्षा कर पायेंगे ।
इस प्रकार उक्त दोनों प्रयोग लँगड़ारोधी सीरम उपलब्ध न होने की स्थिति में किसी अंश आपके स्वस्थ पशुओं की इस रोग की छूत लगने से रक्षा कर सकेंगें ।

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